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दास्ताँ-ए-नई दुनिया
अंधेरों की गहराईयों से, वो ख़ौफ़नाक साये निकलते हैं, जो सदियों से ज़मीन के नीचे करवटें ले रहे थे। राख़ के ढेर में छुपे शोले, अब फूंक मार रहे हैं, एक दुनिया जो मर रही है, और एक नई जो जनम लेने को है। किस्से सुने थे, पर देख रहे हैं अब दैत्य जाग चुके हैं, शकुनि की चालें तेज़ हो चुकी हैं। युद्ध रचे जा रहे हैं, विध्वंस के यज्ञ में, दुनिया की नदियों का जल रक्त से गाढ़ा हो गया। वो जो साये में बैठे थे, अब सूरज को निगलने आए हैं, फिर भी हमें मालूम है, हर रात की उम्र मुकर्रर होती है। डेविड की गुलेल आज भी भारी है, गोलिअथ के कंधों पर ख़ौफ़ का पहाड़ रखा हुआ है। तुम्हें याद होंगे वे किस्से जब अग्नि की लपटों से फीनिक्स जन्मा था, जब समंदर की गोद से मछुआरों ने अपना ईश्वर पाया था, जब सागर को चीरकर भी इंसान ने राह बना ली थी। ये देवताओं की जंग नहीं, न ही पैग़म्बरों की दास्तान, ये उन्हीं आम इंसानों की हिकायत है, जिनके हाथों में हल भी है और हथौड़ा भी। जो मिट्टी में बुनते हैं कल के ख़्वाब, और फौलाद को तोड़कर बनाते हैं इन्साफ़ की सड़कें। अंधेरे से डरने का वक़्त नहीं है, अंधेरे को ठोकर मारने का वक़्त है। हम वही हैं, जिनके क़दमों की आहट से हुक़्मरानों की नींद उड़ जाती है। हम वही हैं, जो अंधेरों के चीर कर, सुबह का सूरज गढ़ते हैं। जो दुनिया मर रही है, मरने दो... जो दुनिया जन्म ले रही है, उसे हम पालेंगे।
नयी तालीम
चौपाल पर बैठे बुज़ुर्ग की कहानी में, बाँसुरी की फूंक में, मिट्टी की खुशबू में बसती है तालीम। यहाँ खेतों की दरारें भूख का गणित समझाती हैं, और स्कूल की घंटियाँ महज एक और सपना बनकर रह जाती हैं। नदी किनारे कपड़े धोती औरतें साड़ी के आँचल से उम्मीदें बांधती हैं। उनकी हथेलियों की सिलवटों में पीढ़ियों का संघर्ष छिपा है। तालीम वो हो, जो इन हाथों की लकीरों से सीखे, जो उनकी कहानियों को किताबों में जगह दे। हर सुबह रिक्शे की घंटी बजाता लड़का, जो गली-गली ज़िंदगी ढोता है, क्या उसकी सीट पर भी कभी तालीम बैठेगी? तालीम वो होनी चाहिए जो उसके पैडल के साथ चले, हर मोड़ पर उसके सपनों को थामे। ग़रीब के चूल्हे की आग जो भूख और उम्मीदों को एक साथ जलाती है, तालीम वो बने जो इस आग में से रोटी और इज्ज़त दोनों पकाए। जो ईंट भट्टों के पास खड़ी गुल्लक जैसी छोटी झोपड़ियों से कहे, “तुम्हारा हक़ इससे कहीं बड़ा है।” तालीम खेतों के तालाब में बसी हो, जहाँ पानी और मेहनत एक दूसरे को समझते हैं। जो पहाड़ी गाँव की झील से पूछे, “कितनी पीढ़ियों ने तेरे किनारों पर सपने सजाए?” जो बाँस की सीढ़ी पर चढ़कर दुनिया देखने वालों को बताए ऊँचाई पाने के लिए जड़ों को पकड़ना ज़रूरी है। तालीम वो हो जो चाय के खोखे पर बहस का हिस्सा बने। जहाँ चाय पत्ती की महक में विचार पकते हैं। जो फैज़ की नज़्मों की तरह हर आवाज़ को इंकलाब बना दे। जो गुलज़ार के शब्दों में मिट्टी और इंसानियत की खुशबू लाए। जो दुष्यंत के तंज की तरह हर झूठ की परतें खोल दे। तालीम वो हो जो सत्ता के गलियारों में चुप्पी के खिलाफ गूंजे। जहाँ हर बच्चे के कंधे पर उसका सपना हों, बस्तों का बोझ नहीं। जो हर मजदूर से कहे, “तेरी हथेलियाँ सिर्फ़ पसीने से नहीं, दुनिया बदलने के हुनर से भी गीली हैं।” तालीम वो हो जो शहर की ऊँची इमारतों से झाँकती नहीं, गाँव की मेड़ों पर चलती हो। जो गन्ने की चरखी से मिठास सीखे, और हल की नोंक पर जिंदगी के अक्षर गढ़े। आओ, ऐसी तालीम गढ़ें जो हर गली, हर गाँव की आवाज़ बने। जहाँ नदी, जंगल, और खेत इंसानियत का पाठ पढ़ाएँ। जहाँ हर झोपड़ी, हर छत, हर दिल ये कहे शिक्षा मेरी या तुम्हारी नहीं है, यह हमारी है, हमारे लिए है!
चमकीले पर्दों की दरारें
रात है दीवाली की, रौशनी के बाज़ार में बिकते दीये, सजे-सजाए कुमकुमों में लिपटे, जैसे उम्मीदों पर पैबंद लगी हों। चमकीले पर्दों के पीछे, एक अंधेरा भी है, वो अंधेरा जो न जाने कितने नामों से हर रोज़ पुकारा जाता है, कभी मज़हब, कभी ज़ात, कभी दौलत, कभी मर्द, कभी औरत। उँगलियों में लिपटी चिंगारियाँ हैं, जो पटाखों की आवाज़ से कहीं दूर, किसी का हक़ माँगती हैं। पड़ोसी की दीवार के उस पार सिर्फ एक माचिस जलती है, बस किसी तरह चूल्हा जल जाए। हवाओं में धुआँ तैरता है, खामोशियाँ चीखें सुनती हैं, और इस रौशनी की भीड़ में किसी कोने में, कोई ईमान अपना मुँह छुपा कर बैठा है। बाजार में मोल है रौशनी का, अँधेरा फिर से अनमोल हो गया है। सिक्कों की खनक में दबा हर दर्द, हर ठहरी हुई मुस्कान, जैसे दीवाली की रात, अंदर कहीं टूटती, बिखरती, पर आँखों में चमकती है। उजाले की इस चादर में कहीं स्याही की एक लकीर है, जो दीवारों पर नहीं, हमारी रगों में बहती है, धीमी, थकी, मगर सच्ची। रौशनी की इस चमकीली चादर पर, एक धुंधला-सा सवाल बिछा है, जिसका जवाब हर दीये के नीचे छुपा बैठा है, कौन जल रहा है, कौन जलाया जा रहा है?
एक गणतंत्र की मौत पर
वो जो कल तक एक सपना था, आज किसी वीराने में दफ़्न हो गया। वो जो नाम था “गणतंत्र,” अब बस एक तारीख़ के साये में खो गया। मिट्टी पर जो लकीर खींची थी, इंसाफ़ की, बराबरी की, वो लकीर आज खून से मिटाई गई, हाथ उन्हीं के, जो पहरेदार थे। संसद के किसी कोने में गूँगी बहसें खड़ी हैं, उनकी आँखों में डर और आवाज़ों में चुप्पी है। जहाँ कभी संविधान रखा जाता था, अब वहाँ हथकड़ियाँ लटकती हैं। जहाँ पर क़लम से इंक़लाब लिखा जाता था, अब तो बस आरोपों की फेहरिस्त सजती है। मंदिर की घंटियाँ और मस्जिद की अज़ान, एक दूसरे से नहीं लड़ रहीं, वो दोनों खामोश हैं, क्योंकि उनका ख़ुदा भी, अब सियासत के हवाले है। तूतीकोरिन की सड़कें अब लाल नहीं दिखतीं, क्योंकि वो खून धूल में दब गया, और हाकिम ने कहा, “ये तो विकास का रंग है।” वो किसान, जिनके हड्डियों से पुल बनाए गए, उनकी राख भी खेतों में नहीं गिरी, क्योंकि ये मिट्टी अब ज़मीन नहीं, प्रॉपर्टी कहलाती है। एक बुड्ढा, जो मसीहा था, स्टैन नाम था उसका, जेल की दीवारों से चिपकी उसकी रूह, अब तुम्हें इशारे से कहती है, “तुमने मुझे मारा नहीं, तुमने अपने गणतंत्र का गला घोंट दिया है।” खेतों की मेड़ों पर बैठी चीखें, फूलों से पूछ रही हैं, “क्या हमने इसी सुबह का ख़्वाब देखा था, जिसमें सूरज का उजाला अब जलता नहीं?” तुम्हारे झंडे अब लहराते नहीं, वो हवा में सलीबों की तरह झूलते हैं। और झूलती है उनकी परछाईं, हर उस सड़क पर, जहाँ उम्मीद कभी चली थी। ये गणतंत्र मर गया है। मगर मौत का मातम नहीं है, क्योंकि जिन हाथों ने इसे मारा, उनके माथे पर ख़ुदा के नाम का नक़ाब है। तुम पूछोगे, “क्या बचा है?” मैं कहूँगा, “ख़ाक।” मगर ख़ाक से आग भी उठ सकती है, अगर तुम आँखों में शर्म और सीने में ग़ुस्सा ला सको।
बाज़ार
ग़ाज़ा की गलियों से उठता धुआं न्यूयॉर्क के शेयर बाज़ार में एक और मुनाफ़ा बनाता है। इस्राइल की बंदूकें उन बच्चों की हँसी को सिक्कों की चमक में बदल देती हैं, जिनकी आँखों में पतंगों के रंग होने चाहिए थे। हर युद्ध, एक नया सूचकांक खड़ा करता है हर लाश अपने खून से, अर्थशास्त्र का के नया अध्याय लिखती है। तालिबान की बंदूकें और अमेरिका के वादे दोनों अर्थशास्त्र की भाषा बोलते हैं। धर्म का झंडा, जो कभी आस्था का था, अब बाज़ार का पोस्टर बन गया है। आध्यात्म के जंगल के पेड़ों की जड़ों को उखाड़कर हाईवे और गगनचुंबी इमारतें बनाई जाती हैं। अंबानी और अडानी के जहाज़ समंदर का नीर बेचते हैं, और पहाड़ों की चोटी पर अब सिर्फ़ क्रेन खड़ी है। हर जगह ग़ाज़ा से न्यूयॉर्क, काबुल से दिल्ली तक, आदमी के भीतर एक खाई बन रही है। उसकी आत्मा जो कभी नदी की धार थी, अब सूखकर सिक्कों के खुरदरे किनारों पर बह रही है। रूहों के घाव गहरे हो चुके हैं, और रिश्तों की ज़मीन मुनाफ़े के वजन से धँस चुकी है। क्या यह दुनिया अब सिर्फ़ व्यापार की मंडी रह गई है? जहाँ इंसान का दिल एक वस्तु बनकर बेचा जाता है। जहाँ ग़ाज़ा का दर्द न्यूयॉर्क की ख़ुशहाली का आधार है। जहाँ हर युद्ध, हर आँसू, एक नया बाजार बनाता है। जहाँ हर इंसान, अपनी आत्मा के टुकड़े बेचता रहता है।
पत्थर का तकिया
उसने सुना था कि सपने पलकों पर तैरते हैं, जैसे बादलों के पार कोई हँसता हुआ चाँद। पर अब उसके सपनों की परछाइयाँ मलबे में कहीं दबी हुई हैं। उसके स्कूल का रास्ता भी इन मलबों में खो गया है, बचपन का खेल बारूद की गंध में सिमट गया है। अम्मी की लोरी, धमाकों के शोर में दब गयी है, जिसे पकड़कर वो चलता था कभी, उसके बाबा की ऊँगली? सिर्फ ऊँगली ही तो बची थी उनकी उन धमाकों के बाद... सोचा था उसने, एक बस्ता होगा, किताबों की महक में लिखी जाएगी उसकी कहानी। वो अपने तकिये पर सिर रखेगा, और तकिये के कोने में छिपाएगा अपने छोटे-छोटे सपने, जो दुनिया से चुराए हुए होंगे। लेकिन उसके तकिये में अब छेद हो गए हैं, इसलिए पत्थरों पर सोता है वो, जहाँ हर सुबह उसका चेहरा कुछ और कड़ा हो जाता है, और उसकी हड्डियों में सपनों का कोई भी हिस्सा नहीं बचता। उसने अब रोना भी छोड़ दिया है क्योंकि आँसू भी पानी की तरह अब एक ख्वाब है, उसकी आँखों के किनारे सूख गए हैं जैसे किसी सूखे तालाब की दरारें। उसके पास अब सिर्फ सवाल हैं, जवाब कोई नहीं, धुएँ का पर्दा है, पीछे कुछ नहीं। उसके पास बचा है तो बस, पत्थर का तकिया...
आईनों में गुमशुदा शहर
जहाँ ग़ालिब दराशिको मीर लफ़्ज़ों से खेला करते थे वहाँ अब शहर के नक़्शे बदल गए हैं। दिल्ली, वो दिल्ली कहाँ जो ख़ुसरो के राग में गाती थी, जहाँ मीर की नज़रें फ़िज़ाओं में इश्क़ के शेर लिखती थीं। जहाँ ज़ौक़ का तसव्वुर हवाओं में बहता था, और नज़ीर की पक्तियों में मिट्टी की ख़ुशबू थी। कभी हसरत के ख़्वाब झीलों-सा बहते थे, तो कभी दाग़ के मिसरे जुगनू-सा टिमटिमाते थे। जहाँ चंदरभान ब्रह्म की ज़ुबान में तहज़ीब की मिठास थी, अब वहाँ का सूरज भी धुंधला है, और हवाएँ गहरी साँसें लेते डरती हैं। दराशिकोह की किताबों में जो सोच उभरती थी, अब वो स्कूल की दीवारों पर चिपके नारे बन चुकी है। जो तालीम कभी रूह की रौशनी थी, आज वो सिर्फ़ नंबरों की दौड़ में भाग रही है। दिल्ली की गलियों में जो वसंत राय का संगीत गूँजता था, जहाँ बेनज़ीर बानो का नृत्य नदी-सा बहता था, अब वहाँ का हर कोना एक चुप्पी की गिरफ़्त में है। जहाँ कभी ज़फ़र का दर्द था, अब वहाँ शीशे के टावरों का ठंडा सन्नाटा है। जहाँ सआदत हसन मंटो की कहानियाँ दिल्ली की नसों में बसती थीं, अब वहाँ एक खोखलापन है, जो हर किरदार से उसके साये छीन लेता है। क्या फैज़ ने ये सोचा था, कि एक दिन शहर की मिट्टी भी बेगानी हो जाएगी? क्या कृष्ण चंदर के अल्फ़ाज़ इन इमारतों की दीवारों में दफ्न हो गए? दिल्ली अब न वो दिल्ली है, न उसका अक्स, न उसकी रूह यहाँ अब बसती । यह शहर बस एक फ़रेब है, जो ख़ुद को बार-बार आईने में तलाश करती है।
दीवारों पर उकेरे गए नाम
अयोध्या के आसमान में जब सूरज उगता है, वो पहले खुद को टटोलता है। सोचता है, “मुझे किसके माथे पर चमकना है, मंदिर या मस्जिद, या किसी पिघलती गली में छुप जाना है?” मंदिर की दीवारों पर अब इबारतें नहीं, सवाल लिखे हैं। वो मिट्टी, जो कभी राम के पांवों से लिपटी थी, आज राजनीति के जूतों में सनी है। सीता की रसोई में अब न चूल्हे की आंच है, न पकवानों की खुशबू। वहाँ अब नारों और नफ़रत की खिचड़ी पकती है। स्कूल की किताब में अयोध्या का ज़िक्र है, पर नक्शे में कोई जगह नहीं। बच्चा सवाल करता है “राम यहाँ पैदा हुए थे न? फिर ये दीवारें क्यों हैं?” गुरुजी मुस्कुराते हैं, उनकी मुस्कान में घाव है। कहते हैं, “ये इतिहास या धर्म का नहीं, सियासत का सवाल है।” मंदिर की सीढ़ियों पर फूल अब भी रखे जाते हैं। रशीद मियाँ के हाथों से निकले फूल, जिनकी पाँच पीढ़ियाँ राम को चढ़ावा चढ़ाती आईं। लेकिन रशीद मियाँ के घर के बाहर एक नया नाम लिखा है “गद्दार।” अयोध्या के हर ईंट में नाम उकेरे गए हैं। राम, रहीम, और उनके बीच एक दरार, जिससे खून रिसता है। यह खून गुलाल की तरह उड़ता है, और रंग बदल देता है। शहर की गलियाँ अब खामोश नहीं, वे बोलती हैं, पर हर बात में एक डर छुपा है। दरवाज़ों के पीछे कहानियाँ बंद हैं। “माँ, अयोध्या की कहानी सुनाओ,” बच्चा कहता है। माँ कहती है, “बेटा, अयोध्या अब कहानी नहीं, तमाशा है।” एक तमाशा, जहाँ धर्म मंच है और इंसान कठपुतली। मंदिर और मस्जिद की इमारतें अब धार्मिक नहीं रहीं, व्यापार बन गई हैं। राम शायद किसी कोने में खड़े हैं, देख रहे हैं, कैसे उनके नाम पर इंसानियत की लाशें गिराई जाती हैं। अयोध्या अब जन्मभूमि नहीं रही, वो एक सवाल है। सवाल, जो हर चुनाव में फिर से गढ़ दिया जाता है।
रुकी हुई घड़ी
कोर्ट की दीवार पर लटकी घड़ी, उसकी सुइयाँ रुकी हैं सालों से… जैसे किसी ने, इंसाफ़ की आँखों पर सिर्फ़ पट्टी ही नहीं, बल्कि हाथ भी बाँध दिए हों। बड़े साहब की कुर्सी पर, मोटी फ़ाइलें रखी हैं, जिनमें दर्ज है, एक और क़ैदी की बेगुनाही जो कभी साबित नहीं होगी। इंसाफ़ अगर इतना धीमा है, तो उसे फ़ाँसी कब होगी?
उधार की साँसें
छोटे से कमरे में दबे होंठ, ठहरी हुई आँखें, एक माँ अपने बच्चे को कहानियाँ सुनाती है, आज़ादी की… खिड़की के उस पार धूप है, पर घर में अंधेरे के क़ानून हैं। उसके माथे की बिंदी और हिजाब, दुनिया के लिए बहस हैं, उसके लिए ख़ौफ़। उसने किताबों में पढ़ा था, भारत एक आज़ाद मुल्क है। तो ये घुटन कैसी है?
बुलडोज़र की इबादत
मस्जिद की दीवारें काँप रही थीं, गाँव की झोपड़ियाँ हिल रही थीं, और उस शाम… एक मंदिर में घंटी बजी। बुलडोज़र ने मज़हब पूछा, और कुछ दरवाज़े गिरा दिए। आज फिर अजान को बेघर करके, राम की मर्यादा बचा ली गयी।
अंधेरी गली
वो गली, जहाँ सन्नाटे की भी आवाज़ सुनाई देती है। वो सड़क, जहाँ हर परछाई ख़तरे जैसी लगती है। एक लड़की हाथ में चाबी थामे, हर कदम पर पलटकर देखती है। क्या रात का अंधेरा सच में डराता है, या सिर्फ़ मर्दों की नीयत?
जलते हुए जंगल
दस्तावेज़ों मे ं जंगल कभी था ही नहीं। सरकारी नक़्शों पर बस एक ख़ाली ज़मीन थी, जहाँ खान खोदी जानी थी। बिरसा मुंडा की तस्वीर के नीचे सरकार ने अपने दस्तख़त कर दिए। "ये जंगल अब देश की संपत्ति है!"
लंबी कतारें
सरकारी दफ़्तर के बाहर लंबी कतारें, एक बुढ़िया अपने आधार कार्ड की कॉपी थामे खड़ी है। काग़ ज़, मोहर, दस्तख़त… फाइलें सरकती हैं, इंसान ठहरते हैं। किसी का राशन रुका है, किसी की ज़िन्दगी।
ग़ायब होती आवाज़ें
वो हाथ में तख़्ती लिए खड़ा था, लिखा था, "न्याय दो!" पर आँसू गैस की धुँध में, किसी ने पढ़ा ही नहीं। उसका गला सूखा, पाँव डगमगाए, लाठी चली, और उसकी आवाज़ भीड़ में ग़ायब हो ग ई। अगले दिन, अख़बार के पहले पन्ने पर था "शहर में शांति बहाल।"
पैक न होने वाला सूटकेस
गाँव के आख़िरी दिन, हरिया ने छत से लालटेन उतारी, शबाना ने लकड़ी के संदूक में पुरखों की तस्वीरें रखीं। पानी धीरे-धीरे ऊपर चढ़ा, मस्जिद की अज़ान अब मछलियों के कानों तक जाती होगी, मंदिर क ी घंटियाँ अब कीचड़ में धँस चुकी होगी। सरकार ने कहा "नई बस्ती बसा दी जाएगी!" पर जो घर पानी में डूबते हैं, क्या वो कभी किनारे तक लौट पाते हैं?
राक्षस बनने की दीक्षा
पहली बार जब उसने रोना चाहा, माँ ने कहा, "मर्द रोते नहीं!" पहली बार जब किसी ने उसे मारा, बाप ने कहा, "लौट के मार!" पहली बार जब किसी लड़की को चाहा, दोस्तों ने कहा, "ले लेना, इश्क़ मर्दों का खेल नहीं!" धीरे-धीरे, उसकी आँखें सूख गईं, हाथ कठोर हो गए, ग़ुस्सा उसकी रगों में बस गया। फिर एक दिन, उसने जब हिंसा का हाथ थामा, दुनिया ने हँसकर कहा, "अब तू मर्द बन गया!"
लाल बहीख़ाता
मज़दूर के हाथों पर पसीने की बूंदें, साहूक ार के दस्तख़त से भारी नहीं थीं। महीनों की मज़दूरी… काग़ज़ के एक लाल बहीख़ाते में कैद थी। नाम के आगे लिखा था, "शेष राशि: 0 रुपये" जिसने खून-पसीने से ईंटें जोड़ीं, उसकी मजदूरी में अब बस क़र्ज़ बचा था।
छूआछूत की थाली
स्क ूल की रसोई में एक बच्चा अकेला बैठा है, उसकी थाली अलग रखी गई है। "ये हमारे कुएँ का पानी नहीं पी सकता!" मास्टर ने कहा। भूख से उसने थाली की ओर देखा, पर इज़्ज़त का स्वाद अब भी कड़वा था। किसी ने कहा था, "भूख का कोई धर्म नहीं होता।" पर शायद, जात होती है।
लाशों से लंबी कतारें
अस्पताल के बाहर ए क आदमी लाइन में खड़ा था, हाथ में पर्ची, आँखों में साँसों की भीख। "बस एक बेड मिल जाए, बस एक सिलेंडर..." पर भीतर जगह ख़त्म हो चुकी थी। कुछ घंटे बाद, वो दूसरी कतार में था, इस बार अपनों की लाश लेने के लिए। सरकार ने कहा, "व्यवस्था चरमरा गई थी!" पर इंसान नहीं मरे, बस सिस्टम मरा था।
मणिपुर की औरतें
तीन औरतें सड़क पर खड़ी थीं, उनके जिस्म पर कपड़े नहीं थे, और उनकी आँखों में इन्साफ़ के लिए कोई जगह नहीं थी। भीड़ हँस रही थी, कैमरे मोबाइल में कैद थे, सैनिक चुप थे, और देश? वो इस ख़बर को छोड़कर वर्ल्ड कप के स्कोर देख रहा था।
क़ैद शायर
किसी ने उसकी शायरी पढ़ी, किसी ने उसकी हड ्डियाँ तोड़ीं। काग़ज़ पर लिखे शब्द, सरकार के लिए ख़तरा बन गए। कलम की नोक से निकली आग, सलाखों के पीछे कैद कर दी गई।
दबी हुई चमक का दस्तावेज़
दीवार के सहारे बैठा मजदूर, जिसके हाथ में है एक ठंडा चिराग़, रौशनी के सैलाब में डूबता-सा, जैसे उसकी अपनी छाया भी उससे रूठ गई हो। जले हुए दीयों के बीच, उसका चेहरा कहीं धुंधला पड़ा है, सवाल उसकी आँखों में जलते हैं कौन बाँटता है ये रौशनी, किसके हिस्से में है उजाला? इस पत्थर की दीवार पर कालिमा पुती है जले हुए दीयों की, उम्र की लकीरें खींची हैं किसी ने, हर दरार में उसके हिस्से का दर्द है, जो हर साल कुछ और गहरा होता है। रोशनी उसकी ओर मुँह मोड़ चुकी है, और वो बैठा है, अपने अंधेरों में उलझा, सपनों की राख समेटता, जिन्हें किसी ने रात की नीलामी में बेच दिया। न मन में ठंडी आग है, न हाथ में जलता दीया, बस एक खामोशी, जिसमें वो खुद को खोता चला जाता है। रौशनी उसकी छाती पर रखी ईंट की तरह भारी है, हर चमकती दीवाली में वो थोड़ा और टूटता है, थोड़ा और मिटता है, जैसे किसी के उजाले की कीमत उसकी चुप्पियों ने चुकाई हो। कहाँ तक चलेगा ये खेल? कितने चिराग़ उसके अंधेरे में ही रहेंगे? शायद कोई जवाब नहीं है, या शायद जवाब बस दीवारों के पीछे कहीं गुम है।
कोर्ट में गाती चिड़िया
अदालत में बहस चल रही थी "क्या झील को भरकर बिल्डिंग बनाई जाए?" एक चिड़िया बाहर पेड़ पर बैठी थी, गा रही थी। जज ने कहा, "परियोजना को मंज़ूरी दी जाती है!" वकीलों ने फाइलें समेटीं, बाहर चिड़िया ने आख़िरी गीत गाया। क्या अदालत में कोई सुनवाई होती उनके लिए जो बोल नही ं सकते?
सवाल पूछने की मज़दूरी
उन्होंने दीवारें खड़ी कीं, कैंपस के हर कोने में विचारों की ईंटें रखीं, पुस्तकालयों में किताबें जोड़ दीं, बहसों में नई दुनिया की नींव डाली। पर जब उन्होंने सवाल पूछा, तो इमारतें नहीं, उनके सपने ढहा दिए गए। किसी को देशद्रोही कहा गया, किसी को टुकड़े-टुकड़े गैंग, किसी को मारने के लिए भीड़ छोड़ दी गई। अब किताबों की अलमारियाँ टूटी पड़ी हैं, कैंपस की सड़कें लहू से धुली हैं, और दीवारों पर लिखा है "इस देश में सोचने की मज़दूरी सबसे महँगी है।"
मैं भारत का किसान हूँ
मैं भारत का किसान हूँ, मैं हर रोज़ मरता हूँ, अखबार कहता है, मैंने आत्महत्या करी है, मैं कहता हूँ मेरी हत्या हुई है, संस्कृति हमारी मुझे, महान कहती है, लोग कहते है, मैं अन्नदाता हूँ, इतिहास की किताबें, भूगोल के पाठ, और समाजशास्त्र के व्याख्यान मेरे बिना अधूरे है, राजनेताओं के भाषण में, सरकारों की योजनाओं में, करोड़ो रुपये खर्च होते है मुझ पर , मैं दो वक़्त की रोटी को तरसता हूँ, बूढ़ी माँ मेरी बीमार हैं, बाप भी पड़ा है खाट पे, बच्चों को शिक्षा कहाँ से दूँ, मैं अपना पेट तक पाल नहीं पाता हूँ, कभी बिन मौसम बरसात है, कभी बरसात में भी अकाल है, कभी आँधियाँ कहर बरपाती है मुझ पर, तो कभी बाढ़ में डूब जाता है मेरा घर, तब आते है सरकारी मुलाज़िम गाँव में मेरे, मांगते है रिश्वत मुआवजा देने के बदले, फिर लगवाते है चक्कर सरकारी दफ्तरों के, और कुछ चिल्लर थमा जाते है, यह क्या कम था तुम्हारे लिए, जो पानी दे दिया मेरा तुमने पेप्सी-कोला को, ज़मीनें बेच दी मेरी अदानी-अंबानी को, और रख दिये मेरे बीज गिरिवी विदेशों में, थमा के जहर मेरे हाथ में, कर्जे में डूबा दी साँसे मेरी, आत्मा गिरवी रख दी मेरी, बैंकों के लॉकरों में, चीख-चीख के थक गया हूँ मैं, सुख गया है मेरी आँखों का पानी, मारना अब मुझे आसान लगता है, मेरी कोई आवाज़ नहीं है, क्योंकि मैं भारत का किसान हूँ….
कर्फ़्यू में कैद पहचान
सरकारी दफ़्तर में तीन लाइनें लगी थीं, पहली में कर्फ़्यू पास, दूसरी में गुमशुदा बेटे की रिपोर्ट, तीसरी में लाश लेने की अर्ज़ी। अम्मी पहले लाइन में धक्के खाती रहीं, दूसरी में घंटों खड़ी रहीं, और तीसरी में, उनके बेटे का नाम आख़िरकार सरकारी काग़ज़ों में दर् ज हो गया। अब वो आतंकवादी कहलाने के लायक़ बन चुका था।